कहीं और
चल ज़िन्दगी
हो गई
है
अधूरी
ग़ज़ल
ज़िन्दगी,
काफ़िया अब तो अपना बदल ज़िन्दगी।
लड़खड़ाई, गिरी, गिर के फिर उठ गई,
डगमगाई बहुत
अब सम्भल
ज़िन्दगी।
ज़ुल्मत-ए-शब
से लड़ तू सहर के लिए,
स्याह घेरों से
बाहर निकल
ज़िन्दगी।
ख्वाब खण्डहर
हुए
तो
नई
शक्ल
दे,
कर दे अब कुछ तो रददो-बदल ज़िन्दगी।
जब डराने
लगें
तुझको खामोशियाँ
,तोड़ कर मौन शब्दों में ढल ज़िन्दगी।
छोड़ दे
ये शहर गर न माफ़िक तुझे,
चल यहाँ से कहीं और चल ज़िन्दगी।
आज नाकाम
है
"आरसी"
क्या
हुआ,
कल तेरी होगी फिर से सफल ज़िन्दगी।
-आर० सी० शर्मा “आरसी”