Sunday 27 May 2012







 कहीं और चल ज़िन्दगी

हो  गई  है  अधूरी  ग़ज़ल  ज़िन्दगी, 
काफ़िया अब तो अपना बदल ज़िन्दगी।

लड़खड़ाई, गिरी, गिर के फिर उठ गई,
डगमगाई  बहुत अब  सम्भल ज़िन्दगी।

ज़ुल्मत--शब से लड़ तू सहर के लिए,
स्याह घेरों  से बाहर  निकल ज़िन्दगी।

ख्वाब  खण्डहर  हुए  तो  नई  शक्ल दे,
कर दे अब कुछ तो रददो-बदल ज़िन्दगी।


जब  डराने  लगें तुझको खामोशियाँ
,तोड़ कर मौन शब्दों में ढल ज़िन्दगी।

छोड़  दे ये शहर गर माफ़िक तुझे,
चल यहाँ से कहीं और चल ज़िन्दगी।

आज  नाकाम  है  "आरसी"  क्या हुआ,
कल तेरी होगी फिर से सफल ज़िन्दगी।

             -आर० सी० शर्माआरसी